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दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा का निधन, 10 साल जेल में रहे, फिर ‘सबूत नहीं’ कहकर बरी किया गया था

मानव अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले एक प्रतिभाशाली शिक्षाविद को कुख्यात आतंकवाद विरोधी कानून गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम 1967 के तहत झूठे आरोपों के लिए दस साल तक क्रूर कारावास सहना पड़ा, सिर्फ इसलिए क्योंकि उनकी सामाजिक सक्रियता ने राज्य को नाराज कर दिया था। हालांकि उन्हें न केवल एक बार बल्कि दो बार बरी किया गया, लेकिन उनकी आजादी अल्पकालिक थी।

साईबाबा, जो 90% दिव्यांगता के साथ थे और चलने-फिरने के लिए व्हीलचेयर पर निर्भर थे, ने अपने कारावास के दौरान शारीरिक रूप से बहुत अधिक गिरावट का सामना किया। उन्हें जेल में गंभीर बीमारियां हुईं, जिससे हृदय और पित्ताशय सहित विभिन्न अंग प्रभावित हुए।

इस साल मार्च में अपनी रिहाई के बाद एक सार्वजनिक बातचीत में, साईबाबा रो पड़े जब उन्होंने बताया कि कैसे वे अपनी मां से आखिरी बार नहीं मिल पाए।

ऐसे देश में जहां राजनीतिक संरक्षण वाले बलात्कारी, हत्यारे और दंगाइयों को पैरोल और छूट मिल जाती है, ‘विचार-अपराध’ के लिए सताए गए लोगों को उनके मूल अधिकारों से वंचित करना किसी भी विवेकशील व्यक्ति को परेशान कर सकता है।

यह याद रखना चाहिए कि साईबाबा को सिर्फ़ एक बार नहीं, बल्कि दो बार बरी किया गया था। अक्टूबर 2022 में, बॉम्बे हाईकोर्ट ने पाया कि यूएपीए के तहत कोई वैध मंजूरी नहीं होने के कारण ट्रायल गलत था, और साईबाबा और पांच सह-आरोपियों को बरी कर दिया, और उनकी तत्काल रिहाई का आदेश दिया। हालांकि, अगले ही दिन, शनिवार को आयोजित एक असाधारण सुनवाई में, सुप्रीम कोर्ट ने उनकी रिहाई पर रोक लगा दी। उनकी रिहाई पर रोक लगाने के लिए शनिवार की सुनवाई ने परेशान करने वाले सवाल खड़े कर दिए। आखिरकार, सुप्रीम कोर्ट ने मामले को दूसरी बेंच द्वारा नए सिरे से विचार करने के लिए हाईकोर्ट को भेज दिया।

10 साल तक जेल में क्यों रहे?

दरअसल, तथाकथित नक्सलियों से लिंक रखने के शक में 2014 में महाराष्ट्र पुलिस ने उन्हें पहली बार गिरफ्तार किया था. पुलिस ने मार्च 2017 में कथित माओवादी संबंधों और राष्ट्र के खिलाफ युद्ध छेड़ने वाली गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगाया था.

महाराष्ट्र की गढ़चिरौली कोर्ट ने इस मामले में मार्च 2017 में साईबाबा को दोषी ठहराया था. सत्र न्यायालय ने साईबाबा सहित महेश तिर्की, पांडु नरोटे, हेम मिश्रा, प्रशांत राही और विजय तिर्की सहित पांच अन्य को दोषी करार दिया था.

उन्होंने सेशन कोर्ट के फैसले को मुंबई हाई कोर्ट की नागपुर पीठ में चुनौती दी थी. नागपुर पीठ ने माओवादियों से कथित संबंधों के मामले में वर्षों तक ट्रायल चलने के बाद साईबाबा एवं पांच अन्य को मुंबई पुलिस के आरोपों से बरी कर दिया था.

मुंबई पुलिस व अन्य जांच एजेंसियां इस मामले में वर्षों तक चले कानूनी जंग के दौरान जीएन साईबाबा के खिलाफ मामला साबित करने में विफल रही. उसके बाद अदालत ने न केवल उनकी आजीवन कारावास की सजा रद्द कर दी बल्कि जमानत पर रिहा भी कर दिया.

हाईकोर्ट की नागपुर पीठ ने अभियोजन पक्ष द्वारा आरोपियों पर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के प्रावधानों के तहत आरोप लगाने के लिए प्राप्त की गई मंजूरी को गलत करार दिया. अदालत से माओवादियों से संबंध रखने के मामले में बरी होने के बाद साईबाबा व्हीलचेयर पर बैठकर 10 साल बाद नागपुर केंद्रीय कारागार से बाहर आए.

जेल में पूरी तरह टूट गए साईंबाबा

, ‘जेल में बिताए उन 10 सालों ने उन्हें पूरी तरह से तोड़ दिया था। जब उन्हें गिरफ्तार किया गया तो उन्हें इधर-उधर फेंका गया और घसीटा गया। जब आखिरी बार गिनती की तो उन्हें 21 बीमारियां थीं। उन्होंने उनके साथ ऐसा इसलिए किया क्योंकि वह उन मुद्दों पर बोलते थे जिनके बारे में कोई नहीं बोलता था। वे उनकी आवाज को कुचलना चाहते थे। उनके अंदर अभी भी दृढ़ संकल्प था। जेल में, वह कैदियों को पढ़ाते थे।’

5 साल की उम्र में हो गया था पोलियो

उनके दोस्तों और सहयोगियों ने साईंबाबा, जिन्हें वे प्यार से साई बुलाते थे, को एक जुझारू व्यक्ति के रूप में याद किया। सेंट स्टीफेंस कॉलेज की पूर्व प्रोफेसर नंदिता नारायण ने कहा, ‘जब वह पांच साल के थे, तब उन्हें पोलियो हो गया था। तब उनका संघर्ष शुरू हुआ था और कभी खत्म नहीं हुआ।’ उन्होंने कहा, ‘मैंने उनके बारे में तब जाना जब मैं 1996 से 2000 तक डीयू की कार्यकारी परिषद की सदस्य चुनी गई थी। वह एक बार अपनी पत्नी के साथ मेरे घर आए थे, तब उनके पास व्हीलचेयर नहीं थी। वह बस खुद को घसीट रहे थे, लेकिन उनके चेहरे पर एक बड़ी सी मुस्कान थी।’

डीयू के कॉलेज में इंग्लिश के प्रोफेसर

जी एन साईबाबा दिल्ली विश्वविद्यालय से सम्बद्ध एक कॉलेज में इंग्लिश के प्रोफेसर मात्र थे. आंध्र प्रदेश से साल 2003 में दिल्ली आए इस शिक्षक के पास इतना पैसा भी नहीं था कि अपने लिए एक व्हील चेयर खरीद सकें. पांच साल की उम्र में पोलियो ने जकड़ लिया फिर वे अपने पैरों पर चल न सके लेकिन जीवन में खुशियां थीं. शिक्षक के रूप में देश-समाज के लिए सोचते थे. उनकी पहचान मानवाधिकार कार्यकर्ता की भी थी.

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