इन दिनों प्रायः संपूर्ण राष्ट्र में शहरों को विकसित करने के नाम पर अतिक्रमण रोधी अभियान चलाए जा रहे हैं। इन अभियानों का सबसे बड़ा दंश वे झेल रहे हैं, जिनकी आवाज सुनाई नहीं पड़ती है। आर्थिक रूप से कमजोर और किसी तरह आजीविका चलाने वाले ये लोग शहरी अतिक्रमण हटाओ दस्ते के दायरे में आ रहे हैं। जिनके पास साधन हैं, वे न्यायालय से स्थगन ले बेखौफ रहते हैं। एक बहुत बड़ा तबका सब कुछ जानते-समझते हुए भी नियम-कानून तोड़ता रहता है, क्योंकि उसके पास बचाव के संसाधन उपलब्ध हैं।
नियम-कानून की अवहेलना से सरकारी प्रतिष्ठान भी अछूते नहीं हैं। सरकार की ओर से विकसित की जा रही सुविधाओं में भी विधि सम्मत प्रावधान नहीं पाए जाते हैं। अधिकांशतया सार्वजनिक उपयोग के स्थल, जैसे उद्यान, सामुदायिक केंद्र और सड़कों के निर्माण में पूरी तरह से कानून का पालन नहीं किया जाता, जिसके कारण पैदल चलने वाले, खासकर दिव्यांग, महिलाएं एवं वरिष्ठजन इनके उपयोग से वंचित रह जाते हैं।
शहरों के समान ग्रामीण क्षेत्रों में सुविधाएं विकसित करने की आवश्यकता
शहरी व्यवस्थाओं के विकास पर ग्रामीण इलाकों की तुलना में प्रति व्यक्ति व्यय अधिक हो रहा है और उसका लाभ भी हर व्यक्ति की पहुंच से दूर है। शहरों के विकास हेतु विभिन्न मदों में व्यय के प्रावधान किए गए हैं और शहरों के इर्द-गिर्द ही विशेष सुविधाओं का निर्माण भी किया जाता है। शैक्षणिक हों अथवा चिकित्सकीय संस्थान या कोई अन्य उत्कृष्टता केंद्र, सभी की स्थापना नगरीय सीमा में ही की जाती है। पूर्व राष्ट्रपति डॉ अब्दुल कलाम ने अपने दृष्टि पत्र में शहरों के समान ग्रामीण क्षेत्रों में सुविधाएं विकसित करने का मंत्र दिया था। उसके पीछे तर्क यही था कि इससे पलायन रुकेगा, सतत विकास के साथ नए अवसर पैदा होंगे, लेकिन अब भी प्राथमिकता शहरी क्षेत्रों को ही मिलती है। कई बार यह तर्क भी दिया जाता है कि ग्रामीण क्षेत्रों का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में योगदान कम है, किंतु बीते कुछ वर्षों में उनके द्वारा व्यय में बढ़ोतरी के कारण ग्रामीणों द्वारा अप्रत्यक्ष कर अदा किया जा रहा है, अतः उस दृष्टि से भी देखा जाए, तो अनुपातिक विकास के प्रावधान नहीं रहते हैं। विडंबना तो यह है कि शहरों में निर्माण के साथ विनिर्माण पर भी सामाजिक व्यय हो रहा है
अधिकांश शहर अव्यवस्थित, अनियोजित, अस्त- व्यस्त विकास से ग्रस्त हैं। संभवतः शहर निर्माण और नियम-कानून की अनदेखी के पर्याय बन गए हैं। किसी भी बजट या आय-व्यय के ब्योरे में इसका उल्लेख नहीं रहता कि अवैध निर्माण हटाने में कितने संसाधन खर्च हुए। उसका सांख्यिकीय आकलन किए बिना जवाबदेही तय करना दुष्कर हो जाता है।
अंधाधुंध तरीके से निर्माण की स्वीकृति मुख्य कारण
अवैध निर्माण या अतिक्रमण रातों-रात नहीं होते, इसलिए इसके उत्तरदायी मात्र कानून तोड़ने वाले नहीं होते हैं, बल्कि वह पूरा महकमा होता है, जिसे कानून की पालना करवाने के लिए वेतन-भत्ते दिए जाते हैं। शायद ही कभी अतिक्रमण के मामले में महकमे के किसी कर्मी के विरुद्ध कार्रवाई हुई हो। अतिक्रमण के मामले में सभी पक्षों- अवैध निर्माणकर्ता, पर्यवेक्षक एवं जिम्मेदार महकमे के वरिष्ठ अधिकारियों को दंडित किया जाना चाहिए। अगर सख्ती से सेवा दोष के तहत उन जिम्मेदार कर्मियों और अधिकारियों पर कार्रवाई होती, तो अवैध निर्माण या अतिक्रमण पर विराम लग गया होता।
अनेक शहरों में न्याय के रक्षकों के आवास के बाहर फुटपाथ और रास्तों पर अवैध रूप से हो रहे विस्तार को देखा जा सकता है। न्यायालयों का स्व-संज्ञान भी गाड़ियों द्वारा ट्रैफिक जाम के लिए तो हो जाता है, किंतु पैदल यात्रियों को होने वाली असुविधा पर उनका ध्यान नहीं जाता। नगर नियोजन में एक अहम कड़ी वास्तुकार और नगर नियोजक विशेषज्ञ भी होते हैं। लेकिन ये भी अंधाधुंध तरीके से निर्माण की स्वीकृति दे देते हैं। आजतक किसी भी नगर नियोजक या वास्तुकार को दोषी नहीं ठहराया गया है।
सशक्त सामाजिक आंदोलन की आवश्यकता
ऐसा लगता है कि शहरों को विकृत करने में सभी लगे हुए हैं और ‘सब चलता है’ या ‘जब कोई आवाज उठेगी, डेगी, तब देखा जाएगा’ के सिद्धांत पर सभी चल रहे हैं। शहरों को जीने योग्य बनाने के लिए एक सशक्त सामाजिक आंदोलन की आवश्यकता है, जो अनुशासन को कायम करने में सरकार के साथ सेतु बन कार्य करे एवं दोषियों को यथोचित दंड तक पहुंचाने का बीड़ा उठाए। मात्र सरकार के भरोसे अनुशासन स्थापित नहीं किया जा सकता। आम आदमी को भी सरोकार रखना होगा, अन्यथा इस चुप्पी का खामियाजा सबको भुगतना होगा